शुभ हो!उज्ज्वल नवज्योतिर्मय दीप ज्योति,भाव ज्योति आशा ज्योति, जीवन ज्योति! सत्यम्-शिवम्-सुंदरम्! हर्ष-आनन्दमय, शुभ मंगल, शुभ जीवन! शुभ-शुभ-शुभ हो... ।प्रातः शुभ,मध्याह्न शुभ, संध्या शुभ हो!क्षण-क्षण, कण-कण, ऋतुओं के वर्ष-मास, रात्रि-दिवस शुभ हो...। शुभ-शुभ-शुभ हो। तन-मन-धन-आत्मा, जड़-चेतन परमात्मा, जागृत-चैतन्यता भरी, सर्वस्व अष्ट सिद्धियाँ,नव निधियाँ शुभ हो! शुभ-शुभ-शुभ हो...। भूत-भविष्यत-वर्तमान शुभ हो। आदि-मध्य और अंत शुभ हो। दिग् और दिगन्त शुभ हो! शून्य से लेकर अनन्त तक शुभ हो! शुभ-शुभ-शुभ हो...! व्यवहार-संस्कारों की कर्त्तव्य-अधिकारों की व्यष्टिगत-समष्टिगत मौन-मुखर अभिव्यक्तिगत भावना-संभावना शुभ हो!शुभ-शुभ-शुभ हो...! शनिवार 14/10/20 दीपावलि लिंक पाएं Facebook Twitter Pinterest ईमेल दूसरे ऐप - नवंबर 13, 2020 लिंक पाएं Facebook Twitter Pinterest ईमेल दूसरे ऐप टिप्पणियाँ
पन्ने - मई 15, 2019 ऐ मेरी जिंदगी के पन्ने! मिलोगे मुझे तुम सिमटे कि बिखरे! गजब बवाल भरे सवाल! या छवि बेदाग साफ़ सुथरे! आइने सी पारदर्शी! या रहस्यमय गहरे! स्वतंत्र हवाओं सी या कैद भरे पहरे! रसभरे या निचोड़े हुए गन्ने! ऐ मेरे जिंदगी के पन्ने! और पढ़ें
सन् 1998-99 की मेरी पुरानी रचना! ऐ मेरे सपने! उस वीराने पेड़ के नीचे चल, जिसकी हर पात झड़ चुकी है, हर एक डाल नंगा है। जीवन की करवाहटों से ऊबा हर पल कुरूप- बेढ़ंगा है। वहाँ एक आस जगानी है, उसके नीचे कुछ पल मैं बैठूँगी, जहाँ सूनापन वीरानी है। मैं परखूँगी, वसंत और पतझड़ की कालचक्री जहाँ मनमानी है। उन चिड़ियों के नीड़ जो उजड़े पड़े हैं। छोड़ अपना बसेरा डर से दूर पड़े हैं। जहाँ हवा भी गुजरती दबे पाँव, जिसकी भनक किसी को नहीं मिलती है। कल तक बहार थी जहाँ, झूमानेवाले शाखाओं पर कोई पत्ता नहीं, जो हवा के स्पर्श से पुलकित होती थी। खरर खरर की आवाज गुंजारित करती थी। कोई आया कहकर, हर क्षण चौकन्ना होती थी। जिस हवा के आने से, खुशियों का आभास होता था, वही हवा आज परिहास सूचक बनती, वीरानी छाकर । वही चाँद-सूरज आते प्रत्येक दिन की तरह, पर उसकी दाहकता को सूर्य-प्रभा और दहकाती है। चंद्रमा की किरणें पड़कर भी कहाँ शीतल उसे कर पाती हैं? पाण्डेय सरिता - अक्तूबर 07, 2020 और पढ़ें
क्यों शिव-शक्ति? ब्रम्हा की ब्रम्हाणी? विष्णु की वैष्णवी? रूद्र की रूद्राणी? नर-नारी के सहयोगी अस्तित्व को हड़प कर नष्ट-भ्रष्ट कर, एकोऽहम हे पुरुष! तुम पूर्ण हो अपने आधे अस्तित्व में तो फिर इस संसार में स्त्रीत्व की आवश्यकता ही क्या थी? क्यों त्रिदेवों के रहने के बावजूद संयुक्त शक्ति बनकर दुर्गा को आना पड़ता है? सृष्टि की सारी रक्षक शक्तियों के बावजूद आत्मरक्षार्थ काली बन जाना पड़ता है? पाण्डेय सरिता - अक्तूबर 13, 2020 और पढ़ें
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