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मैंने लगाया है पौध एक पारिजात का। योगमय एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद, समय आने पर संवेदनशील,जागृत रूप में शब्दों के सुवासित फूलों में अनुबंध खिलेंगे मेरे-इनके साथ का। विविधतापूर्ण इस सृष्टि में सृजन के भावनात्मक आत्मीयतापूर्ण संबंध मिलेंगे प्रणयी प्रकृति के दिन-रात का। आ जाना बन के बाराती जीवन के बारात का। जो भी पढ़ेंगे बन सहभागी इस किताब का। शब्द-शब्द महकेंगे, मध्य-अंत तक शुरुआत का। पाण्डेय सरिता

 

क्यों शिव-शक्ति? ब्रम्हा की ब्रम्हाणी? विष्णु की वैष्णवी? रूद्र की रूद्राणी? नर-नारी के सहयोगी अस्तित्व को हड़प कर नष्ट-भ्रष्ट कर, एकोऽहम हे पुरुष! तुम पूर्ण हो अपने आधे अस्तित्व में तो फिर इस संसार में स्त्रीत्व की आवश्यकता ही क्या थी? क्यों त्रिदेवों के रहने के बावजूद संयुक्त शक्ति बनकर दुर्गा को आना पड़ता है? सृष्टि की सारी रक्षक शक्तियों के बावजूद आत्मरक्षार्थ काली बन जाना पड़ता है? पाण्डेय सरिता

समुद्र और मैं!चाँद-सूर्य और पृथ्वी की गतिमान जीवन की संवेदनाओं की पीड़ा में हवाओं ने जैसे छूआ! आतुरता की चरम सीमा पर, आकर्षित कर कभी खींच लेता रहा, कभी निष्ठुर-मुक्त संन्यासी सा उलीच बड़ी उद्वेलन भर फेंकता रहा, बेपरवाह इस अनन्त विशालकाय समन्दर को, एक अणु, एक कण, मेरी क्षुद्रतम अस्तित्व की क्षणभंगुरता से क्या? उसकी तीव्रतम धारा में गतिमान जीवन की सहृदयता-निष्ठुरता से क्या? वह तो अपनी निर्बाध शक्तियों का कर रहा प्रर्दशन या अपने स्वाभाविक रूप में है बहता रहा। उसके पास किसी के लिए, रुकने-ठहरने की फुर्सत नहीं, लोगों के कहने-सुनने की बातों के मामले में वो बहरा रहा। जानने-परखने की उत्सुकता लिए, कभी कोई गोताखोर बन अतल-तल गहराइयों में उतरता गया, तो कभी कोई मुझसा बैठ किनारों पर ठहरा रहा। कहानियाँ सभी की अपनी रही, मनो-मस्तिष्क पर कब कोई पहरा रहा? सभी ने अपने-अपने मनोनुकूल विचारानुसार भावनात्मक शब्दों में कहा, क्योंकि सबके शब्दकोष में उनका अबोध ककहरा रहा। पाण्डेय सरिता

सन् 1998-99 की मेरी पुरानी रचना! ऐ मेरे सपने! उस वीराने पेड़ के नीचे चल, जिसकी हर पात झड़ चुकी है, हर एक डाल नंगा है। जीवन की करवाहटों से ऊबा हर पल कुरूप- बेढ़ंगा है। वहाँ एक आस जगानी है, उसके नीचे कुछ पल मैं बैठूँगी, जहाँ सूनापन वीरानी है। मैं परखूँगी, वसंत और पतझड़ की कालचक्री जहाँ मनमानी है। उन चिड़ियों के नीड़ जो उजड़े पड़े हैं। छोड़ अपना बसेरा डर से दूर पड़े हैं। जहाँ हवा भी गुजरती दबे पाँव, जिसकी भनक किसी को नहीं मिलती है। कल तक बहार थी जहाँ, झूमानेवाले शाखाओं पर कोई पत्ता नहीं, जो हवा के स्पर्श से पुलकित होती थी। खरर खरर की आवाज गुंजारित करती थी। कोई आया कहकर, हर क्षण चौकन्ना होती थी। जिस हवा के आने से, खुशियों का आभास होता था, वही हवा आज परिहास सूचक बनती, वीरानी छाकर । वही चाँद-सूरज आते प्रत्येक दिन की तरह, पर उसकी दाहकता को सूर्य-प्रभा और दहकाती है। चंद्रमा की किरणें पड़कर भी कहाँ शीतल उसे कर पाती हैं? पाण्डेय सरिता