समुद्र और मैं!चाँद-सूर्य और पृथ्वी की गतिमान जीवन की संवेदनाओं की पीड़ा में हवाओं ने जैसे छूआ! आतुरता की चरम सीमा पर, आकर्षित कर कभी खींच लेता रहा, कभी निष्ठुर-मुक्त संन्यासी सा उलीच बड़ी उद्वेलन भर फेंकता रहा, बेपरवाह इस अनन्त विशालकाय समन्दर को, एक अणु, एक कण, मेरी क्षुद्रतम अस्तित्व की क्षणभंगुरता से क्या? उसकी तीव्रतम धारा में गतिमान जीवन की सहृदयता-निष्ठुरता से क्या? वह तो अपनी निर्बाध शक्तियों का कर रहा प्रर्दशन या अपने स्वाभाविक रूप में है बहता रहा। उसके पास किसी के लिए, रुकने-ठहरने की फुर्सत नहीं, लोगों के कहने-सुनने की बातों के मामले में वो बहरा रहा। जानने-परखने की उत्सुकता लिए, कभी कोई गोताखोर बन अतल-तल गहराइयों में उतरता गया, तो कभी कोई मुझसा बैठ किनारों पर ठहरा रहा। कहानियाँ सभी की अपनी रही, मनो-मस्तिष्क पर कब कोई पहरा रहा? सभी ने अपने-अपने मनोनुकूल विचारानुसार भावनात्मक शब्दों में कहा, क्योंकि सबके शब्दकोष में उनका अबोध ककहरा रहा। पाण्डेय सरिता

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