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सन् 1998-99 की मेरी पुरानी रचना! ऐ मेरे सपने! उस वीराने पेड़ के नीचे चल, जिसकी हर पात झड़ चुकी है, हर एक डाल नंगा है। जीवन की करवाहटों से ऊबा हर पल कुरूप- बेढ़ंगा है। वहाँ एक आस जगानी है, उसके नीचे कुछ पल मैं बैठूँगी, जहाँ सूनापन वीरानी है। मैं परखूँगी, वसंत और पतझड़ की कालचक्री जहाँ मनमानी है। उन चिड़ियों के नीड़ जो उजड़े पड़े हैं। छोड़ अपना बसेरा डर से दूर पड़े हैं। जहाँ हवा भी गुजरती दबे पाँव, जिसकी भनक किसी को नहीं मिलती है। कल तक बहार थी जहाँ, झूमानेवाले शाखाओं पर कोई पत्ता नहीं, जो हवा के स्पर्श से पुलकित होती थी। खरर खरर की आवाज गुंजारित करती थी। कोई आया कहकर, हर क्षण चौकन्ना होती थी। जिस हवा के आने से, खुशियों का आभास होता था, वही हवा आज परिहास सूचक बनती, वीरानी छाकर । वही चाँद-सूरज आते प्रत्येक दिन की तरह, पर उसकी दाहकता को सूर्य-प्रभा और दहकाती है। चंद्रमा की किरणें पड़कर भी कहाँ शीतल उसे कर पाती हैं? पाण्डेय सरिता
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